बालकाण्ड : भाग-पांच
• राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ, रानियों का गर्भवती होना
श्री भगवान् का प्राकट्य और बाललीला का आनंद
विश्वामित्र का राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगना, ताड़का वध
अहल्या उद्धार
श्री राम-लक्ष्मण का जनकपुर निरीक्षण
श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश
श्री लक्ष्मणजी का क्रोध
बालकाण्ड में प्रभु राम
के जन्म से लेकर राम-विवाह तक के घटनाक्रम आते हैं। नीचे बालकाण्ड से
जुड़े घटनाक्रमों की विषय सूची दी गई है।
• राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ, रानियों का गर्भवती होना
• श्री भगवान् का प्राकट्य और बाललीला का आनंद
• विश्वामित्र का राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगना, ताड़का वध
• विश्वामित्र-यज्ञ की रक्षा
• अहल्या उद्धार
• श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश
• श्री राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता
• श्री राम-लक्ष्मण का जनकपुर निरीक्षण
• पुष्पवाटिका-निरीक्षण, सीताजी का प्रथम दर्शन, श्री सीता-रामजी का परस्पर दर्शन
• श्री सीताजी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाद
• श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश
• श्री सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश
• बंदीजनों द्वारा जनकप्रतिज्ञा की घोषणा, राजाओं से धनुष न उठना, जनक की निराशाजनक वाणी
• श्री लक्ष्मणजी का क्रोध
• श्री भगवान् का प्राकट्य और बाललीला का आनंद
• विश्वामित्र का राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगना, ताड़का वध
• विश्वामित्र-यज्ञ की रक्षा
• अहल्या उद्धार
• श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश
• श्री राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता
• श्री राम-लक्ष्मण का जनकपुर निरीक्षण
• पुष्पवाटिका-निरीक्षण, सीताजी का प्रथम दर्शन, श्री सीता-रामजी का परस्पर दर्शन
• श्री सीताजी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाद
• श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश
• श्री सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश
• बंदीजनों द्वारा जनकप्रतिज्ञा की घोषणा, राजाओं से धनुष न उठना, जनक की निराशाजनक वाणी
• श्री लक्ष्मणजी का क्रोध
• राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ, रानियों का गर्भवती होना
* गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥3॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥3॥
भावार्थ:-वे (वानर)
पर्वतों और जंगलों में जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुंदर सेना बनाकर भरपूर छा गए।
यह सब सुंदर चरित्र मैंने कहा। अब वह चरित्र सुनो जिसे बीच ही में छोड़ दिया
था॥3॥
* अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥4॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥4॥
भावार्थ:-अवधपुरी में
रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे
धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी थे। उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण
करने वाले भगवान की भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी॥4॥
दोहा :
* कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥188॥
भावार्थ:-उनकी कौसल्या
आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरण वाली थीं। वे (बड़ी) विनीत और पति के
अनुकूल (चलने वाली) थीं और श्री हरि के चरणकमलों में उनका दृढ़ प्रेम
था॥188॥
चौपाई :
* एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥
भावार्थ:-एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की॥1॥
* निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥2॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥2॥
भावार्थ:-राजा ने अपना
सारा सुख-दुःख गुरु को सुनाया। गुरु वशिष्ठजी ने उन्हें बहुत प्रकार से
समझाया (और कहा-) धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में
प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होंगे॥2॥
* सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥3॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥3॥
भावार्थ:-वशिष्ठजी ने
श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनि के
भक्ति सहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए
प्रकट हुए॥3॥
दोहा :
*जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥4॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥4॥
भावार्थ:-(और दशरथ से
बोले-) वशिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो
गया। हे राजन्! (अब) तुम जाकर इस हविष्यान्न (पायस) को, जिसको जैसा उचित
हो, वैसा भाग बनाकर बाँट दो॥4॥
दोहा :
* तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥
भावार्थ:-तदनन्तर अग्निदेव सारी सभा को समझाकर अन्तर्धान हो गए। राजा परमानंद में मग्न हो गए, उनके हृदय में हर्ष समाता न था॥189॥
चौपाई :
* तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥1॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-उसी समय राजा
ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया। कौसल्या आदि सब (रानियाँ) वहाँ चली
आईं। राजा ने (पायस का) आधा भाग कौसल्या को दिया, (और शेष) आधे के दो भाग
किए॥1॥
* कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥2॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥2॥
भावार्थ:-वह (उनमें से
एक भाग) राजा ने कैकेयी को दिया। शेष जो बच रहा उसके फिर दो भाग हुए और
राजा ने उनको कौसल्या और कैकेयी के हाथ पर रखकर (अर्थात् उनकी अनुमति
लेकर) और इस प्रकार उनका मन प्रसन्न करके सुमित्रा को दिया॥2॥
* एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥3॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए॥3॥
भावार्थ:-इस प्रकार सब
स्त्रियाँ गर्भवती हुईं। वे हृदय में बहुत हर्षित हुईं। उन्हें बड़ा सुख
मिला। जिस दिन से श्री हरि (लीला से ही) गर्भ में आए, सब लोकों में सुख और
सम्पत्ति छा गई॥3॥
* मंदिर महँ सब राजहिं रानीं। सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥4॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥4॥
भावार्थ:-शोभा, शील और
तेज की खान (बनी हुई) सब रानियाँ महल में सुशोभित हुईं। इस प्रकार कुछ समय
सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया, जिसमें प्रभु को प्रकट होना था॥4॥
श्री भगवान् का प्राकट्य और बाललीला का आनंद
दोहा :
* जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥
भावार्थ:-योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए। (क्योंकि) श्री राम का जन्म सुख का मूल है॥190॥
चौपाई :
* नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥1॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥1॥
भावार्थ:-पवित्र चैत्र
का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित् मुहूर्त
था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब
लोकों को शांति देने वाला था॥1॥
* सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥2॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥2॥
भावार्थ:-शीतल, मंद और
सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में (बड़ा) चाव था।
वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ
अमृत की धारा बहा रही थीं॥2॥
* सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥3॥
गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥3॥
भावार्थ:-जब ब्रह्माजी
ने वह (भगवान के प्रकट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता विमान
सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल
गुणों का गान करने लगे॥3॥
* बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी। गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥4॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥4॥
भावार्थ:-और सुंदर
अंजलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे।
नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा
(उपहार) भेंट करने लगे॥4॥
दोहा :
* सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191
भावार्थ:-देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए॥191॥
छन्द :
* भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥
भावार्थ:-दीनों पर दया
करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को
हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को
आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास)
आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र
थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट
हुए॥1॥
* कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥2॥
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता॥2॥
भावार्थ:-दोनों हाथ
जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद
और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं।
श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान
करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के
लिए प्रकट हुए हैं॥2॥
* ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥
भावार्थ:-वेद कहते हैं
कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह
(भरे) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर
(विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब
माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र
करना चाहते हैं। अतः उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को
समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो (भगवान के
प्रति पुत्र भाव हो जाए)॥3॥
* माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥4॥
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥4॥
भावार्थ:-माता की वह
बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय
बाललीला करो, (मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर
देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया।
(तुलसीदासजी कहते हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद
पाते हैं और (फिर) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते॥4॥
दोहा :
* बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥
भावार्थ:-ब्राह्मण, गो,
देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी,
मलिना) माया और उसके गुण (सत्, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों
से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से
परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)॥192॥
चौपाई :
* सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥
भावार्थ:-बच्चे के रोने
की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं।
दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए॥1॥
* दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥
भावार्थ:-राजा दशरथजी
पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय
प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। (आनंद में अधीर हुई) बुद्धि को धीरज देकर
(और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को संभालकर) वे उठना चाहते हैं॥2॥
* जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥
परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥
भावार्थ:-जिनका नाम
सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं। (यह सोचकर) राजा का
मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजे वालों को बुलाकर कहा कि बाजा
बजाओ॥3॥
* गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4॥
भावार्थ:-गुरु वशिष्ठजी
के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होंने
जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त
नहीं होते॥4॥
दोहा :
* नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥
भावार्थ:-फिर राजा ने नांदीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोना, गो, वस्त्र और मणियों का दान दिया॥193॥
चौपाई :
* ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥1॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥1॥
भावार्थ:-ध्वजा, पताका
और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही
नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानंद में
मग्न हैं॥1॥
* बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिंगार किएँ उठि धाईं॥
कनक कलस मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥2॥
कनक कलस मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥2॥
भावार्थ:-स्त्रियाँ झुंड
की झुंड मिलकर चलीं। स्वाभाविक श्रृंगार किए ही वे उठ दौड़ीं। सोने का कलश
लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुईं राजद्वार में प्रवेश करती
हैं॥2॥
* करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥3॥
मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥3॥
भावार्थ:-वे आरती करके
निछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागध, सूत,
वन्दीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों का गान करते हैं॥3॥
* सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥4॥
मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥4॥
भावार्थ:-राजा ने सब
किसी को भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा (लुटा दिया)। (नगर
की) सभी गलियों के बीच-बीच में कस्तूरी, चंदन और केसर की कीच मच गई॥4॥
दोहा :
* गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद॥194॥
भावार्थ:-घर-घर मंगलमय
बधावा बजने लगा, क्योंकि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के
स्त्री-पुरुषों के झुंड के झुंड जहाँ-तहाँ आनंदमग्न हो रहे हैं॥194॥
चौपाई :
* कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥
वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥
भावार्थ:-कैकेयी और
सुमित्रा- इन दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति,
समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कर सकते॥1॥
* अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥2॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥2॥
भावार्थ:-अवधपुरी इस
प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को
देखकर मानो मन में सकुचा गई हो, परन्तु फिर भी मन में विचार कर वह मानो
संध्या बन (कर रह) गई हो॥2॥
* अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥3॥
मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा॥3॥
भावार्थ:-अगर की धूप का
बहुत सा धुआँ मानो (संध्या का) अंधकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह उसकी
ललाई है। महलों में जो मणियों के समूह हैं, वे मानो तारागण हैं। राज महल का
जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है॥3॥
* भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥
कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥
भावार्थ:-राजभवन में जो
अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से (समयानुकूल) सनी हुई
पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी (अपनी चाल) भूल गए। एक
महीना उन्होंने जाता हुआ न जाना (अर्थात उन्हें एक महीना वहीं बीत गया)॥4॥
दोहा :
* मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥
भावार्थ:-
महीने भर का दिन हो गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रुक गए, फिर रात किस तरह होती॥195॥
चौपाई :
* यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥1॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥1॥
भावार्थ:-यह रहस्य किसी
ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी का) गुणगान करते हुए चले। यह
महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने
घर चले॥1॥
* औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी॥
काकभुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥2॥
काकभुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥2॥
भावार्थ:-हे पार्वती!
तुम्हारी बुद्धि (श्री रामजी के चरणों में) बहुत दृढ़ है, इसलिए मैं और भी
अपनी एक चोरी (छिपाव) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुशुण्डि और मैं दोनों
वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न
सका॥2॥
* परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥3॥
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥3॥
भावार्थ:-परम आनंद और
प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से (मस्त हुए) गलियों में
(तन-मन की सुधि) भूले हुए फिरते थे, परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है,
जिस पर श्री रामजी की कृपा हो॥3॥
* तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥4॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥4॥
भावार्थ:-उस अवसर पर जो
जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया। हाथी,
रथ, घोड़े, सोना, गायें, हीरे और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा ने दिए॥4॥
दोहा :
* मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥
भावार्थ:-राजा ने सबके
मन को संतुष्ट किया। (इसी से) सब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि
तुलसीदास के स्वामी सब पुत्र (चारों राजकुमार) चिरजीवी (दीर्घायु) हों॥196॥
चौपाई :
* कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार कुछ
दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण संस्कार का समय
जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्री वशिष्ठजी को बुला भेजा॥1॥
* करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2॥
भावार्थ:-मुनि की पूजा
करके राजा ने कहा- हे मुनि! आपने मन में जो विचार रखे हों, वे नाम रखिए।
(मुनि ने कहा-) हे राजन्! इनके अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के
अनुसार कहूँगा॥2॥
*जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥
भावार्थ:-ये जो आनंद के
समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी
होते हैं, उन (आपके सबसे बड़े पुत्र) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और
सम्पूर्ण लोकों को शांति देने वाला है॥3॥
* बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥
भावार्थ:-जो संसार का
भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम 'भरत' होगा, जिनके स्मरण
मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध 'शत्रुघ्न' नाम
है॥4॥
दोहा :
* लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ठ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥
गुरु बसिष्ठ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥
भावार्थ:-जो शुभ लक्षणों
के धाम, श्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वशिष्ठजी ने
उनका 'लक्ष्मण' ऐसा श्रेष्ठ नाम रखा है॥197॥
चौपाई :
* धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥
भावार्थ:-गुरुजी ने हृदय
में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्! तुम्हारे चारों पुत्र वेद
के तत्त्व (साक्षात् परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के
सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश)
बाल लीला के रस में सुख माना है॥1॥
* बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥2॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई॥2॥
भावार्थ:-बचपन से ही
श्री रामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजी ने उनके चरणों
में प्रीति जोड़ ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की
जिस प्रीति की प्रशंसा है, वैसी प्रीति हो गई॥2॥
*स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3॥
भावार्थ:-श्याम और गौर
शरीर वाली दोनों सुंदर जोड़ियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं
(जिसमें दीठ न लग जाए)। यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं,
तो भी सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं॥3॥
* हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4॥
कबहुँ उछंग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4॥
भावार्थ:-उनके हृदय में
कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरने वाली हँसी उस (कृपा रूपी
चन्द्रमा) की किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में (लेकर) और कभी उत्तम
पालने में (लिटाकर) माता 'प्यारे ललना!' कहकर दुलार करती है॥4॥
दोहा :
* ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198॥
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198॥
भावार्थ:-जो सर्वव्यापक,
निरंजन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैं, वही प्रेम
और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में (खेल रहे) हैं॥198॥
चौपाई :
* काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥
नअरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥
नअरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥
भावार्थ:-उनके नीलकमल और
गंभीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की
शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों की (शुभ्र) ज्योति ऐसी मालूम होती है
जैसे (लाल) कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों॥1॥
* रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥2॥
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥2॥
भावार्थ:-(चरणतलों में)
वज्र, ध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पेंजनी) की ध्वनि सुनकर
मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ
(त्रिवली) हैं। नाभि की गंभीरता को तो वही जानते हैं, जिन्होंने उसे देखा
है॥2॥
* भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥3॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥3॥
भावार्थ:-बहुत से
आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली
छटा है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण
(भृगु) के चरण चिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है॥3॥
* कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥4॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥4॥
भावार्थ:-कंठ शंख के
समान (उतार-चढ़ाव वाला, तीन रेखाओं से सुशोभित) है और ठोड़ी बहुत ही सुंदर
है। मुख पर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो-दो सुंदर दँतुलियाँ हैं,
लाल-लाल होठ हैं। नासिका और तिलक (के सौंदर्य) का तो वर्णन ही कौन कर सकता
है॥4॥
* सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥5॥
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥5॥
भावार्थ:-सुंदर कान और
बहुत ही सुंदर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के
समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से
बनाकर सँवार दिया है॥5॥
* पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥6॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥6॥
भावार्थ:-शरीर पर पीली
झँगुली पहनाई हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा
लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता
है, जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो॥6॥
दोहा :
* सुख संदोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥
भावार्थ:-जो सुख के
पुंज, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं, वे भगवान
दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं॥199॥
चौपाई :
* एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार
(सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते
हैं, जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी है, हे भवानी!
उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनंद
दे रहे हैं)॥1॥
* रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बंधन कौन
छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी
प्रभु से भय खाती है॥2॥
* भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥
भावार्थ:-भगवान उस माया
को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, (और) किसका भजन
किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा
करेंगे॥3॥
* एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥4॥
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार से
प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगर निवासियों को सुख
दिया। कौसल्याजी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालने में
लिटाकर झुलाती थीं॥4॥
दोहा :
* प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200॥
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200॥
भावार्थ:-प्रेम में मग्न कौसल्याजी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं। पुत्र के स्नेहवश माता उनके बालचरित्रों का गान किया करतीं॥200॥
चौपाई :
* एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1॥
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1॥
भावार्थ:-एक बार माता ने
श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया।
फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया॥1॥
* करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥2॥
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥2॥
भावार्थ:-पूजा करके
नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहाँ गईं, जहाँ रसोई बनाई गई थी। फिर माता वहीं
(पूजा के स्थान में) लौट आई और वहाँ आने पर पुत्र को (इष्टदेव भगवान के लिए
चढ़ाए हुए नैवेद्य का) भोजन करते देखा॥2॥
* गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥3।
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई॥3।
भावार्थ:-माता भयभीत
होकर (पालने में सोया था, यहाँ किसने लाकर बैठा दिया, इस बात से डरकर)
पुत्र के पास गई, तो वहाँ बालक को सोया हुआ देखा। फिर (पूजा स्थान में
लौटकर) देखा कि वही पुत्र वहाँ (भोजन कर रहा) है। उनके हृदय में कम्प होने
लगा और मन को धीरज नहीं होता॥3॥
* इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥4॥
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥4॥
भावार्थ:-(वह सोचने लगी
कि) यहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई
विशेष कारण है? प्रभु श्री रामचन्द्रजी माता को घबड़ाई हुई देखकर मधुर
मुस्कान से हँस दिए॥4॥
दोहा :
* देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥201॥
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥201॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने माता को अपना अखंड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं॥201॥
चौपाई :
* अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥
भावार्थ:-अगणित सूर्य,
चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल,
कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न
थे॥1॥
* देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥2॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥2॥
भावार्थ:-सब प्रकार से
बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है।
जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को
(माया से) छुड़ा देती है॥2॥
* तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥3॥
बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥3॥
भावार्थ:-(माता का) शरीर
पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने श्री
रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के
शत्रु श्री रामजी फिर बाल रूप हो गए॥3॥
* अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4॥
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4॥
भावार्थ:-(माता से)
स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र
करके जाना। श्री हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता!
सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं॥4॥
दोहा :
* बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥
भावार्थ:-कौसल्याजी बार-बार हाथ जोड़कर विनय करती हैं कि हे प्रभो! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे॥202॥
चौपाई :
* बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥1॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥1॥
भावार्थ:-भगवान ने बहुत
प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनंद दिया। कुछ समय
बीतने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देने वाले हुए॥1॥
* चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥
भावार्थ:-तब गुरुजी ने
जाकर चूड़ाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सी दक्षिणा पाई। चारों
सुंदर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं॥2॥
* मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥
भावार्थ:-जो मन, वचन और
कर्म से अगोचर हैं, वही प्रभु दशरथजी के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने
के समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोड़कर नहीं
आते॥3॥
* कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥
निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥
भावार्थ:-कौसल्या जब
बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद 'नेति'
(इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिवजी ने जिनका अन्त नहीं पाया,
माता उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिए दौड़ती हैं॥4॥
* धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥5॥।
भावार्थ:-वे शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा ने हँसकर उन्हें गोद में बैठा लिया॥5॥
दोहा :
*भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥
भावार्थ:-भोजन करते हैं, पर चित चंचल है। अवसर पाकर मुँह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले॥203॥
चौपाई :
* बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥1॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की बहुत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का
सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में
अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वंचित कर दिया (नितांत
भाग्यहीन बनाया)॥1॥
* भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥
भावार्थ:-ज्यों ही सब
भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत
संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने
गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2॥
* जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला॥3॥
भावार्थ:-चारों वेद
जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढ़ें, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चारों
भाई विद्या, विनय, गुण और शील में (बड़े) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं
के ही खेल खेलते हैं॥3॥
* करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥
भावार्थ:-हाथों में बाण
और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। रूप देखते ही चराचर (जड़-चेतन) मोहित हो
जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते (हुए निकलते) हैं, उन गलियों के
सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह
जाते हैं॥4॥
दोहा :
* कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥
भावार्थ:-कोसलपुर के रहने वाले स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपालु श्री रामचन्द्रजी प्राणों से भी बढ़कर प्रिय लगते हैं॥204॥
चौपाई :
* बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥1॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन
में जाकर शिकार खेलते हैं। मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और
प्रतिदिन लाकर राजा (दशरथजी) को दिखलाते हैं॥1॥
* जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥2॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥2॥
भावार्थ:-जो मृग श्री
रामजी के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे। श्री
रामचन्द्रजी अपने छोटे भाइयों और सखाओं के साथ भोजन करते हैं और माता-पिता
की आज्ञा का पालन करते हैं॥2॥
* जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥3॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥3॥
भावार्थ:-जिस प्रकार नगर
के लोग सुखी हों, कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी वही संयोग (लीला) करते हैं।
वे मन लगाकर वेद-पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयों को समझाकर कहते
हैं॥3॥
* प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥4॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर का
काम करते हैं। उनके चरित्र देख-देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं॥4॥
विश्वामित्र का राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगना, ताड़का वध
दोहा :
* ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥
भावार्थ:-जो व्यापक, अकल
(निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही
भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं॥205॥
चौपाई :
* यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥
भावार्थ:-यह सब चरित्र
मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि
विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,॥1॥
* जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥
भावार्थ:-जहाँ वे मुनि
जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे। यज्ञ
देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख
पाते थे॥2॥
* गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥
भावार्थ:-गाधि के पुत्र
विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे)
बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी
का भार हरने के लिए अवतार लिया है॥3॥
*एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥
भावार्थ:-इसी बहाने जाकर
मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊँ।
(अहा!) जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र
भरकर देखूँगा॥4॥
दोहा :
* बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥
भावार्थ:-बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी। सरयूजी के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुँचे॥206॥
चौपाई :
* मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥
भावार्थ:-राजा ने जब
मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और
दण्डवत् करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया॥1॥
* चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥
भावार्थ:-चरणों को धोकर
बहुत पूजा की और कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। फिर अनेक
प्रकार के भोजन करवाए, जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत ही हर्ष
प्राप्त किया॥2॥
*पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥
भावार्थ:-फिर राजा ने
चारों पुत्रों को मुनि के चरणों पर डाल दिया (उनसे प्रणाम कराया)। श्री
रामचन्द्रजी को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए। वे श्री रामजी के मुख
की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा
गया हो॥3॥
* तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥
भावार्थ:-तब राजा ने मन
में हर्षित होकर ये वचन कहे- हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की।
आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं
लगाऊँगा॥4॥
* असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥
भावार्थ:-(मुनि ने कहा-)
हे राजन्! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ
माँगने आया हूँ। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को मुझे दो। राक्षसों के मारे
जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा॥5॥
दोहा :
* देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥
भावार्थ:-हे राजन्!
प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड़ दो। हे स्वामी! इससे तुमको
धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा॥207॥
चौपाई :
* सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥
भावार्थ:-इस अत्यन्त
अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कांति फीकी पड़
गई। (उन्होंने कहा-) हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं,
आपने विचार कर बात नहीं कही॥1॥
* मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥
भावार्थ:-हे मुनि! आप
पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बड़े हर्ष के साथ अपना सर्वस्व
दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल
में दे दूँगा॥2॥
* सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥3॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥3॥
भावार्थ:-सभी पुत्र मुझे
प्राणों के समान प्यारे हैं, उनमें भी हे प्रभो! राम को तो (किसी प्रकार
भी) देते नहीं बनता। कहाँ अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहाँ परम
किशोर अवस्था के (बिलकुल सुकुमार) मेरे सुंदर पुत्र! ॥3॥
* सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥4॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा॥4॥
भावार्थ:-प्रेम रस में
सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी ने हृदय में बड़ा
हर्ष माना। तब वशिष्ठजी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का
संदेह नाश को प्राप्त हुआ॥4॥
* अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥
भावार्थ:-राजा ने बड़े ही
आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें
शिक्षा दी। (फिर कहा-) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि!
(अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं॥5॥
दोहा :
* सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208 क ॥
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208 क ॥
भावार्थ:-राजा ने बहुत
प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता
के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले॥208 (क)॥
सोरठा :
* पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208 ख॥
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥208 ख॥
भावार्थ:-पुरुषों में
सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर
चले। वे कृपा के समुद्र, धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण
हैं॥208 (ख)॥
चौपाई :
* अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥
भावार्थ:-भगवान के लाल
नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की
तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर (पहने) और सुंदर तरकस कसे हुए हैं।
दोनों हाथों में (क्रमशः) सुंदर धनुष और बाण हैं॥1॥
* स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥2॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥2॥
भावार्थ:-श्याम और गौर
वर्ण के दोनों भाई परम सुंदर हैं। विश्वामित्रजी को महान निधि प्राप्त हो
गई। (वे सोचने लगे-) मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के
भक्त) हैं। मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड़ दिया॥2॥
* चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥
भावार्थ:-मार्ग में चले
जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी।
श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद
(अपना दिव्य स्वरूप) दिया॥3॥
* तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥4॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥4॥
भावार्थ:-तब ऋषि
विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भंडार समझते हुए भी (लीला को
पूर्ण करने के लिए) ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में
अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो॥4॥
विश्वामित्र-यज्ञ की रक्षा
दोहा :
* आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥
भावार्थ:-सब
अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्री रामजी को अपने आश्रम में ले आए
और उन्हें परम हितू जानकर भक्तिपूर्वक कंद, मूल और फल का भोजन कराया॥209॥
चौपाई :
*प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥1॥
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥1॥
भावार्थ:-सबेरे श्री
रघुनाथजी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि
हवन करने लगे। आप (श्री रामजी) यज्ञ की रखवाली पर रहे॥1॥
* सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥2॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥2॥
भावार्थ:-यह समाचार
सुनकर मुनियों का शत्रु कोरथी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर दौड़ा।
श्री रामजी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तार
वाले समुद्र के पार जा गिरा॥2॥
* पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥3॥
मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥3॥
भावार्थ:-फिर सुबाहु को
अग्निबाण मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का संहार कर
डाला। इस प्रकार श्री रामजी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर
दिया। तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे॥3॥
* तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
भगति हेतु बहुत कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥4॥
भगति हेतु बहुत कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
ने वहाँ कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की। भक्ति के कारण ब्राह्मणों
ने उन्हें पुराणों की बहुत सी कथाएँ कहीं, यद्यपि प्रभु सब जानते थे॥4॥
* तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥5॥
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥5॥
भावार्थ:-तदन्तर मुनि ने
आदरपूर्वक समझाकर कहा- हे प्रभो! चलकर एक चरित्र देखिए। रघुकुल के स्वामी
श्री रामचन्द्रजी धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी के
साथ प्रसन्न होकर चले॥5॥
अहल्या उद्धार
* आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥6॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥6॥
भावार्थ:-मार्ग में एक
आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, को भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक
शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही॥6॥
दोहा :
* गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥
भावार्थ:-गौतम मुनि की
स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की
धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए॥210॥
छन्द :
* परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह
तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को
देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई।
उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त
बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल
(प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥1॥
* धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥
भावार्थ:-फिर उसने मन
में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त
की। तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारंभ की- हे
ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथजी! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र
स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने
वाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से
छुड़ाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥2॥
* मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3॥
देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3॥
भावार्थ:-मुनि ने जो
मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा किया। मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह (करके)
मानती हूँ कि जिसके कारण मैंने संसार से छुड़ाने वाले श्री हरि (आप) को
नेत्र भरकर देखा। इसी (आपके दर्शन) को शंकरजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे
प्रभो! मैं बुद्धि की बड़ी भोली हूँ, मेरी एक विनती है। हे नाथ ! मैं और कोई
वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल
की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे॥3॥
* जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥4॥
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥4॥
भावार्थ:-जिन चरणों से
परमपवित्र देवनदी गंगाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण किया और
जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे
सिर पर रखा। इस प्रकार (स्तुति करती हुई) बार-बार भगवान के चरणों में
गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या
आनंद में भरी हुई पतिलोक को चली गई॥4॥
दोहा :
* अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211॥
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥211॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामचन्द्रजी ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी
कहते हैं, हे शठ (मन)! तू कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं का भजन कर॥211॥
मासपारायण, सातवाँ विश्राम
मासपारायण, सातवाँ विश्राम
श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का जनकपुर में प्रवेश
चौपाई :
* चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी और
लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली
गंगाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी ने वह सब कथा कह सुनाई जिस
प्रकार देवनदी गंगाजी पृथ्वी पर आई थीं॥1॥
* तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥2॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥2॥
भावार्थ:-तब प्रभु ने
ऋषियों सहित (गंगाजी में) स्नान किया। ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान
पाए। फिर मुनिवृन्द के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट
पहुँच गए॥2॥
* पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥
भावार्थ:-श्री रामजी ने
जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए।
वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है
और मणियों की सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं॥3॥
* गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा। कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥
बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥
भावार्थ:-मकरंद रस से
मतवाले होकर भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। रंग-बिरंगे (बहुत से) पक्षी
मधुर शब्द कर रहे हैं। रंग-रंग के कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओं में) सुख
देने वाला शीतल, मंद, सुगंध पवन बह रहा है॥4॥
दोहा :
* सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212।
भावार्थ:-पुष्प वाटिका
(फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते
और सुंदर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं॥212॥
चौपाई :
* बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥
भावार्थ:-नगर की सुंदरता
का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है।
सुंदर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने
उन्हें अपने हाथों से बनाया है॥1॥
*धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥2॥
चौहट सुंदर गलीं सुहाई। संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥2॥
भावार्थ:-कुबेर के समान
श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे
हैं। सुंदर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगंध से सिंची रहती हैं॥2॥
* मंगलमय मंदिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥3॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता। धरमसील ग्यानी गुनवंता॥3॥
भावार्थ:-सबके घर मंगलमय
हैं और उन पर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने
अंकित किया है। नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुंदर, पवित्र, साधु स्वभाव
वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं॥3॥
*अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥
भावार्थ:-जहाँ जनकजी का
अत्यन्त अनुपम (सुंदर) निवास स्थान (महल) है, वहाँ के विलास (ऐश्वर्य) को
देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं (मनुष्यों की तो बात ही
क्या!)। कोट (राजमहल के परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, (ऐसा
मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकों की शोभा को रोक (घेर) रखा है॥4॥
दोहा :
*धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥
भावार्थ:-उज्ज्वल महलों
में अनेक प्रकार के सुंदर रीति से बने हुए मणि जटित सोने की जरी के परदे
लगे हैं। सीताजी के रहने के सुंदर महल की शोभा का वर्णन किया ही कैसे जा
सकता है॥213॥
चौपाई :
* सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रख संकुल सब काला॥1॥
बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रख संकुल सब काला॥1॥
भावार्थ:-राजमहल के सब
दरवाजे (फाटक) सुंदर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा हीरों के चमकते हुए)
किवाड़ लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, नटों, मागधों और भाटों की भीड़ लगी
रहती है। घोड़ों और हाथियों के लिए बहुत बड़ी-बड़ी घुड़सालें और गजशालाएँ
(फीलखाने) बनी हुई हैं, जो सब समय घोड़े, हाथी और रथों से भरी रहती हैं॥1॥
* सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥2॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥2॥
भावार्थ:-बहुत से
शूरवीर, मंत्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं। नगर के
बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत से राजा लोग उतरे हुए (डेरा
डाले हुए) हैं॥2॥
* देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥3॥
कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥3॥
भावार्थ:-(वहीं) आमों का
एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और जो सब तरह से सुहावना
था, विश्वामित्रजी ने कहा- हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा
जाए॥3॥
* भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनि बृंद समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥4॥
बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥4॥
भावार्थ:-कृपा के धाम
श्री रामचन्द्रजी 'बहुत अच्छा स्वामिन्!' कहकर वहीं मुनियों के समूह के
साथ ठहर गए। मिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र
आए हैं,॥4॥
दोहा :
* संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥
भावार्थ:-तब उन्होंने
पवित्र हृदय के (ईमानदार, स्वामिभक्त) मंत्री बहुत से योद्धा, श्रेष्ठ
ब्राह्मण, गुरु (शतानंदजी) और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों को साथ लिया और
इस प्रकार प्रसन्नता के साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी से मिलने
चले॥214॥
चौपाई :
* कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥1॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥1॥
भावार्थ:-राजा ने मुनि
के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने
प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमंडली को आदर सहित प्रणाम
किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनंदित हुए॥1॥
* कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥2॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥2॥
भावार्थ:-बार-बार कुशल प्रश्न करके विश्वामित्रजी ने राजा को बैठाया। उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गए थे॥2॥
* स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥3॥
उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥3॥
भावार्थ:-सुकुमार किशोर
अवस्था वाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले और
सारे विश्व के चित्त को चुराने वाले हैं। जब रघुनाथजी आए तब सभी (उनके रूप
एवं तेज से प्रभावित होकर) उठकर खड़े हो गए। विश्वामित्रजी ने उनको अपने
पास बैठा लिया॥3॥
* भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥4॥
मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥4॥
भावार्थ:-दोनों भाइयों
को देखकर सभी सुखी हुए। सबके नेत्रों में जल भर आया (आनंद और प्रेम के आँसू
उमड़ पड़े) और शरीर रोमांचित हो उठे। रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर
विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए॥4॥
श्री राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धता
दोहा :
* प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥
भावार्थ:-मन को प्रेम
में मग्न जान राजा जनक ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के
चरणों में सिर नवाकर गद्गद् (प्रेमभरी) गंभीर वाणी से कहा- ॥215॥
चौपाई :
* कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥
भावार्थ:-हे नाथ! कहिए,
ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा
जिसका वेदों ने 'नेति' कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर
नहीं आया है?॥1॥
* सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥
भावार्थ:-मेरा मन जो
स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो
रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य
(निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए॥2॥
* इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥
भावार्थ:-इनको देखते ही
अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया
है। मुनि ने हँसकर कहा- हे राजन्! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा। आपका वचन
मिथ्या नहीं हो सकता॥3॥
* ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥4॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥4॥
भावार्थ:-जगत में जहाँ
तक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं। मुनि की (रहस्य भरी) वाणी
सुनकर श्री रामजी मन ही मन मुस्कुराते हैं (हँसकर मानो संकेत करते हैं कि
रहस्य खोलिए नहीं)। (तब मुनि ने कहा-) ये रघुकुल मणि महाराज दशरथ के पुत्र
हैं। मेरे हित के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है॥4॥
दोहा :
* रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥216॥
भावार्थ:-ये राम और
लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत (इस बात
का) साक्षी है कि इन्होंने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा
की है॥216॥
चौपाई :
* मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥
भावार्थ:-राजा ने कहा-
हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता। ये
सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनंद को भी आनंद देने वाले हैं।
* इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥
भावार्थ:-इनकी आपस की
प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही
नहीं जा सकती। विदेह (जनकजी) आनंदित होकर कहते हैं- हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म
और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है॥2॥
* पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥
भावार्थ:-राजा बार-बार
प्रभु को देखते हैं (दृष्टि वहाँ से हटना ही नहीं चाहती)। (प्रेम से) शरीर
पुलकित हो रहा है और हृदय में बड़ा उत्साह है। (फिर) मुनि की प्रशंसा करके
और उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में लिवा चले॥3॥
* सुंदर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥
भावार्थ:-एक सुंदर महल
जो सब समय (सभी ऋतुओं में) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर
ठहराया। तदनन्तर सब प्रकार से पूजा और सेवा करके राजा विदा माँगकर अपने घर
गए॥4॥
दोहा :
* रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥
भावार्थ:-रघुकुल के
शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई
लक्ष्मण समेत बैठे। उस समय पहरभर दिन रह गया था॥217॥
चौपाई :
*लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी के
हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें, परन्तु प्रभु श्री
रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं, इसलिए प्रकट में कुछ
नहीं कहते, मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥1॥
* राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥2॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥2॥
भावार्थ:-(अन्तर्यामी)
श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, (तब) उनके हृदय में
भक्तवत्सलता उमड़ आई। वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते
हुए मुस्कुराकर बोले॥2॥
* नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥3॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ!
लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप) के डर और संकोच के कारण
स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही
(वापस) ले आऊँ॥3॥
* सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥4॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥4॥
भावार्थ:-यह सुनकर
मुनीश्वर विश्वामित्रजी ने प्रेम सहित वचन कहे- हे राम! तुम नीति की रक्षा
कैसे न करोगे, हे तात! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के
वशीभूत होकर सेवकों को सुख देने वाले हो॥4॥
श्री राम-लक्ष्मण का जनकपुर निरीक्षण
दोहा :
* जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218॥
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥218॥
भावार्थ:-सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुंदर मुख दिखलाकर सब (नगर निवासियों) के नेत्रों को सफल करो॥218॥
चौपाई :
* मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बृंद देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥1॥
बालक बृंद देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥1॥
भावार्थ:-सब लोकों के
नेत्रों को सुख देने वाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले।
बालकों के झुंड इन (के सौंदर्य) की अत्यन्त शोभा देखकर साथ लग गए। उनके
नेत्र और मन (इनकी माधुरी पर) लुभा गए॥1॥
* पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥2॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥2॥
भावार्थ:-(दोनों भाइयों
के) पीले रंग के वस्त्र हैं, कमर के (पीले) दुपट्टों में तरकस बँधे हैं।
हाथों में सुंदर धनुष-बाण सुशोभित हैं। (श्याम और गौर वर्ण के) शरीरों के
अनुकूल (अर्थात् जिस पर जिस रंग का चंदन अधिक फबे उस पर उसी रंग के) सुंदर
चंदन की खौर लगी है। साँवरे और गोरे (रंग) की मनोहर जोड़ी है॥2॥
* केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥3॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन॥3॥
भावार्थ:-सिंह के समान
(पुष्ट) गर्दन (गले का पिछला भाग) है, विशाल भुजाएँ हैं। (चौड़ी) छाती पर
अत्यन्त सुंदर गजमुक्ता की माला है। सुंदर लाल कमल के समान नेत्र हैं।
तीनों तापों से छुड़ाने वाला चन्द्रमा के समान मुख है॥3॥
* कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥4॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥4॥
भावार्थ:-कानों में सोने
के कर्णफूल (अत्यन्त) शोभा दे रहे हैं और देखते ही (देखने वाले के) चित्त
को मानो चुरा लेते हैं। उनकी चितवन (दृष्टि) बड़ी मनोहर है और भौंहें तिरछी
एवं सुंदर हैं। (माथे पर) तिलक की रेखाएँ ऐसी सुंदर हैं, मानो (मूर्तिमती)
शोभा पर मुहर लगा दी गई है॥4॥
दोहा :
* रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥
भावार्थ:-सिर पर सुंदर
चौकोनी टोपियाँ (दिए) हैं, काले और घुँघराले बाल हैं। दोनों भाई नख से लेकर
शिखा तक (एड़ी से चोटी तक) सुंदर हैं और सारी शोभा जहाँ जैसी चाहिए वैसी ही
है॥219॥
चौपाई :
* देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥1॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥1॥
भावार्थ:-जब पुरवासियों
ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब
घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री (धन का) खजाना लूटने
दौड़े हों॥1॥
* निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2॥
भावार्थ:-स्वभाव ही से
सुंदर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं।
युवती स्त्रियाँ घर के झरोखों से लगी हुई प्रेम सहित श्री रामचन्द्रजी के
रूप को देख रही हैं॥2॥
* कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3॥
भावार्थ:-वे आपस में बड़े
प्रेम से बातें कर रही हैं- हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवों की छबि को
जीत लिया है। देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं
सुनने में भी नहीं आती॥3॥
* बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4॥
भावार्थ:-भगवान विष्णु
के चार भुजाएँ हैं, ब्रह्माजी के चार मुख हैं, शिवजी का विकट (भयानक) वेष
है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है, जिसके
साथ इस छबि की उपमा दी जाए॥4॥
दोहा :
* बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥
भावार्थ:-इनकी किशोर
अवस्था है, ये सुंदरता के घर, साँवले और गोरे रंग के तथा सुख के धाम हैं।
इनके अंग-अंग पर करोड़ों-अरबों कामदेवों को निछावर कर देना चाहिए॥220॥
चौपाई :
* कहहु सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥1॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥1॥
भावार्थ:-हे सखी! (भला)
कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस रूप को देखकर मोहित न हो जाए (अर्थात
यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करने वाला है)। (तब) कोई दूसरी सखी प्रेम सहित
कोमल वाणी से बोली- हे सयानी! मैंने जो सुना है उसे सुनो-॥1॥
* ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥2॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥2॥
भावार्थ:-ये दोनों
(राजकुमार) महाराज दशरथजी के पुत्र हैं! बाल राजहंसों का सा सुंदर जोड़ा है।
ये मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने वाले हैं, इन्होंने युद्ध के
मैदान में राक्षसों को मारा है॥2॥
* स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥3॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥3॥
भावार्थ:-जिनका श्याम
शरीर और सुंदर कमल जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहु के मद को चूर करने
वाले और सुख की खान हैं और जो हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैं, वे कौसल्याजी
के पुत्र हैं, इनका नाम राम है॥3॥
* गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥4॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥4॥
भावार्थ:-जिनका रंग गोरा
और किशोर अवस्था है और जो सुंदर वेष बनाए और हाथ में धनुष-बाण लिए श्री
रामजी के पीछे-पीछे चल रहे हैं, वे इनके छोटे भाई हैं, उनका नाम लक्ष्मण
है। हे सखी! सुनो, उनकी माता सुमित्रा हैं॥4॥
दोहा :
* बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥
भावार्थ:-दोनों भाई
ब्राह्मण विश्वामित्र का काम करके और रास्ते में मुनि गौतम की स्त्री
अहल्या का उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आए हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँ
प्रसन्न हुईं॥221॥
चौपाई :
* देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी- यह वर जानकी के
योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोड़कर
हठपूर्वक इन्हीं से विवाह कर देगा॥1॥
* कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥2॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥2॥
भावार्थ:-किसी ने कहा-
राजा ने इन्हें पहचान लिया है और मुनि के सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया
है, परंतु हे सखी! राजा अपना प्रण नहीं छोड़ता। वह होनहार के वशीभूत होकर
हठपूर्वक अविवेक का ही आश्रय लिए हुए हैं (प्रण पर अड़े रहने की मूर्खता
नहीं छोड़ता)॥2॥
* कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥3॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥3॥
भावार्थ:-कोई कहती है-
यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैं, तो
जानकीजी को यही वर मिलेगा। हे सखी! इसमें संदेह नहीं है॥3॥
* जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥4॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥4॥
भावार्थ:-जो दैवयोग से
ऐसा संयोग बन जाए, तो हम सब लोग कृतार्थ हो जाएँ। हे सखी! मेरे तो इसी से
इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ आवेंगे॥4॥
दोहा :
* नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥
भावार्थ:-नहीं तो (विवाह
न हुआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दर्शन दुर्लभ हैं। यह संयोग तभी हो
सकता है, जब हमारे पूर्वजन्मों के बहुत पुण्य हों॥222॥
चौपाई :
* बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥
भावार्थ:-दूसरी ने कहा-
हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाह से सभी का परम हित है। किसी ने
कहा- शंकरजी का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक
हैं॥1॥
* सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥2॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥2॥
भावार्थ:-हे सयानी! सब
असमंजस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगी- हे सखी! इनके
संबंध में कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखने में तो छोटे हैं, पर इनका
प्रभाव बहुत बड़ा है॥2॥
* परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥3॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥3॥
भावार्थ:-जिनके चरणकमलों
की धूलि का स्पर्श पाकर अहल्या तर गई, जिसने बड़ा भारी पाप किया था, वे
क्या शिवजी का धनुष बिना तोड़े रहेंगे। इस विश्वास को भूलकर भी नहीं छोड़ना
चाहिए॥3॥
* जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥4॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥4॥
भावार्थ:-जिस ब्रह्मा ने
सीता को सँवारकर (बड़ी चतुराई से) रचा है, उसी ने विचार कर साँवला वर भी रच
रखा है। उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणी से कहने लगीं- ऐसा
ही हो॥4॥
दोहा :
* हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥223॥
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥223॥
भावार्थ:-
सुंदर मुख और सुंदर नेत्रों वाली स्त्रियाँ समूह की समूह हृदय में हर्षित
होकर फूल बरसा रही हैं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैं, वहाँ-वहाँ परम आनंद
छा जाता है॥223॥
चौपाई :
* पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥
भावार्थ:-दोनों भाई नगर
के पूरब ओर गए, जहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रंग) भूमि बनाई गई थी। बहुत
लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिस पर सुंदर और निर्मल वेदी सजाई
गई थी॥1॥
* चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥2॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥2॥
भावार्थ:-चारों ओर सोने
के बड़े-बड़े मंच बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे समीप ही चारों
ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था॥2॥
* कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3॥
भावार्थ:-वह कुछ ऊँचा था
और सब प्रकार से सुंदर था, जहाँ जाकर नगर के लोग बैठेंगे। उन्हीं के पास
विशाल एवं सुंदर सफेद मकान अनेक रंगों के बनाए गए हैं॥3॥
* जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4॥
भावार्थ:-जहाँ अपने-अपने
कुल के अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर
देखेंगी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी
को (यज्ञशाला की) रचना दिखला रहे हैं॥4॥
दोहा :
* सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥
भावार्थ:-सब बालक इसी
बहाने प्रेम के वश में होकर श्री रामजी के मनोहर अंगों को छूकर शरीर से
पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयों को देख-देखकर उनके हृदय में अत्यन्त
हर्ष हो रहा है॥224॥
चौपाई :
* सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥1॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर (यज्ञभूमि के) स्थानों की
प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। (इससे बालकों का उत्साह, आनंद और प्रेम और भी बढ़
गया, जिससे) वे सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और
(प्रत्येक के बुलाने पर) दोनों भाई प्रेम सहित उनके पास चले जाते हैं॥1॥
* राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥2॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥2॥
भावार्थ:-कोमल, मधुर और
मनोहर वचन कहकर श्री रामजी अपने छोटे भाई लक्ष्मण को (यज्ञभूमि की) रचना
दिखलाते हैं। जिनकी आज्ञा पाकर माया लव निमेष (पलक गिरने के चौथाई समय) में
ब्रह्माण्डों के समूह रच डालती है,॥2॥
*भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥3॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥3॥
भावार्थ:-वही दीनों पर
दया करने वाले श्री रामजी भक्ति के कारण धनुष यज्ञ शाला को चकित होकर
(आश्चर्य के साथ) देख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना) देखकर वे
गुरु के पास चले। देर हुई जानकर उनके मन में डर है॥3॥
* जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआईं॥4॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआईं॥4॥
भावार्थ:-जिनके भय से डर
को भी डर लगता है, वही प्रभु भजन का प्रभाव (जिसके कारण ऐसे महान प्रभु भी
भय का नाट्य करते हैं) दिखला रहे हैं। उन्होंने कोमल, मधुर और सुंदर बातें
कहकर बालकों को जबर्दस्ती विदा किया॥4॥
दोहा :
* सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥
भावार्थ:-फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥225॥
चौपाई :
* निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥
भावार्थ:-रात्रि का
प्रवेश होते ही (संध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने संध्यावंदन
किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुंदर रात्रि दो पहर बीत
गई॥1॥
* मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥2॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥2॥
भावार्थ:-तब श्रेष्ठ
मुनि ने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे, जिनके चरण कमलों के
(दर्शन एवं स्पर्श के) लिए वैराग्यवान् पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग
करते हैं॥2॥
*तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3॥
भावार्थ:-वे ही दोनों
भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे
हैं। मुनि ने बार-बार आज्ञा दी, तब श्री रघुनाथजी ने जाकर शयन किया॥3॥
* चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥4॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए
लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बार-बार कहा- हे
तात! (अब) सो जाओ। तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेटे रहे॥4॥
पुष्पवाटिका-निरीक्षण, सीताजी का प्रथम दर्शन, श्री सीता-रामजी का परस्पर दर्शन
दोहा :
* उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥
भावार्थ:-रात बीतने पर, मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मणजी उठे। जगत के स्वामी सुजान श्री रामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही जाग गए॥226॥
चौपाई :
* सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥
भावार्थ:-सब शौचक्रिया
करके वे जाकर नहाए। फिर (संध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके
उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया। (पूजा का) समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर
दोनों भाई फूल लेने चले॥1॥
* भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने जाकर
राजा का सुंदर बाग देखा, जहाँ वसंत ऋतु लुभाकर रह गई है। मन को लुभाने वाले
अनेक वृक्ष लगे हैं। रंग-बिरंगी उत्तम लताओं के मंडप छाए हुए हैं॥2॥
*नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥
भावार्थ:-नए, पत्तों,
फलों और फूलों से युक्त सुंदर वृक्ष अपनी सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा
रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर
सुंदर नृत्य कर रहे हैं॥3॥
* मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥4॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा। जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥4॥
भावार्थ:-बाग के
बीचोंबीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की सीढ़ियाँ विचित्र ढंग
से बनी हैं। उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रंगों के कमल खिले हुए हैं, जल
के पक्षी कलरव कर रहे हैं और भ्रमर गुंजार कर रहे हैं॥4॥
दोहा :
* बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥
भावार्थ:-बाग और सरोवर
को देखकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण सहित हर्षित हुए। यह बाग
(वास्तव में) परम रमणीय है, जो (जगत को सुख देने वाले) श्री रामचन्द्रजी को
सुख दे रहा है॥227॥
चौपाई :
*चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥1॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥1॥
भावार्थ:-चारों ओर
दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्र-पुष्प लेने लगे।
उसी समय सीताजी वहाँ आईं। माता ने उन्हें गिरिजाजी (पार्वती) की पूजा करने
के लिए भेजा था॥1॥
* संग सखीं सब सुभग सयानीं। गावहिं गीत मनोहर बानीं॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥2॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥2॥
भावार्थ:-साथ में सब
सुंदरी और सयानी सखियाँ हैं, जो मनोहर वाणी से गीत गा रही हैं। सरोवर के
पास गिरिजाजी का मंदिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, देखकर
मन मोहित हो जाता है॥।2॥
* मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥3॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥3॥
भावार्थ:-सखियों सहित
सरोवर में स्नान करके सीताजी प्रसन्न मन से गिरिजाजी के मंदिर में गईं।
उन्होंने बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुंदर वर माँगा॥3॥
* एक सखी सिय संगु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥4॥
तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥4॥
भावार्थ:-एक सखी सीताजी
का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गई थी। उसने जाकर दोनों भाइयों को देखा और
प्रेम में विह्वल होकर वह सीताजी के पास आई॥4॥
दोहा :
* तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥228॥
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥228॥
भावार्थ:-सखियों ने उसकी
दशा देखी कि उसका शरीर पुलकित है और नेत्रों में जल भरा है। सब कोमल वाणी
से पूछने लगीं कि अपनी प्रसन्नता का कारण बता॥228॥
चौपाई :
* देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥
भावार्थ:-(उसने कहा-) दो
राजकुमार बाग देखने आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर
हैं। वे साँवले और गोरे (रंग के) हैं, उनके सौंदर्य को मैं कैसे बखानकर
कहूँ। वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है॥1॥
* सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥2॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥2॥
भावार्थ:-यह सुनकर और
सीताजी के हृदय में बड़ी उत्कंठा जानकर सब सयानी सखियाँ प्रसन्न हुईं। तब एक
सखी कहने लगी- हे सखी! ये वही राजकुमार हैं, जो सुना है कि कल विश्वामित्र
मुनि के साथ आए हैं॥2॥
* जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥3॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥3॥
भावार्थ:-और जिन्होंने
अपने रूप की मोहिनी डालकर नगर के स्त्री-पुरुषों को अपने वश में कर लिया
है। जहाँ-तहाँ सब लोग उन्हीं की छबि का वर्णन कर रहे हैं। अवश्य (चलकर)
उन्हें देखना चाहिए, वे देखने ही योग्य हैं॥3॥
* तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥4॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥4॥
भावार्थ:-उसके वचन
सीताजी को अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शन के लिए उनके नेत्र अकुला उठे। उसी
प्यारी सखी को आगे करके सीताजी चलीं। पुरानी प्रीति को कोई लख नहीं
पाता॥4॥
दोहा :
* सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥
भावार्थ:-नारदजी के
वचनों का स्मरण करके सीताजी के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे चकित
होकर सब ओर इस तरह देख रही हैं, मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही
हो॥229॥
चौपाई :
* कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥
भावार्थ:-कंकण (हाथों के
कड़े), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर
लक्ष्मण से कहते हैं- (यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को
जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है॥1॥
* अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥2॥
भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥2॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री
रामजी ने फिर कर उस ओर देखा। श्री सीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा (को
निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। सुंदर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग
गई)। मानो निमि (जनकजी के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना
गया है, लड़की-दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं, इस भाव से) सकुचाकर
पलकें छोड़ दीं, (पलकों में रहना छोड़ दिया, जिससे पलकों का गिरना रुक
गया)॥2॥
* देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥
भावार्थ:-सीताजी की शोभा
देखकर श्री रामजी ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं,
किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते। (वह शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्मा ने
अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो॥3॥
* सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥
भावार्थ:-वह (सीताजी की
शोभा) सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है। (वह ऐसी मालूम होती है) मानो
सुंदरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। (अब तक सुंदरता रूपी भवन में
अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुंदरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा
है, पहले से भी अधिक सुंदर हो गया है)। सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा
कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ॥4॥
दोहा :
* सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥
भावार्थ:-(इस प्रकार)
हृदय में सीताजी की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर प्रभु श्री
रामचन्द्रजी पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन
बोले-॥230॥
चौपाई :
* तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥
भावार्थ:-हे तात! यह वही
जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन
के लिए ले आई हैं। यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है॥1॥
* जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥2॥
भावार्थ:-जिसकी अलौकिक
सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण
(अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक
(दाहिने) अंग फड़क रहे हैं॥2॥
* रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥
भावार्थ:-रघुवंशियों का
यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे
तो अपने मन का अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने (जाग्रत की कौन कहे) स्वप्न
में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है॥3॥
* जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥
भावार्थ:-रण में शत्रु
जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात् जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं), पराई
स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहाँ से
'नाहीं' नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में
थोड़े हैं॥4॥
दोहा :
* करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231॥
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥231॥
भावार्थ:-
यों श्री रामजी छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजी के रूप में
लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमल के छबि रूप मकरंद रस को भौंरे की तरह पी रहा
है॥231॥
चौपाई :
* चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥1॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥1॥
भावार्थ:-सीताजी चकित
होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बात की चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार
कहाँ चले गए। बाल मृगनयनी (मृग के छौने की सी आँख वाली) सीताजी जहाँ दृष्टि
डालती हैं, वहाँ मानो श्वेत कमलों की कतार बरस जाती है॥1॥
* लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥2॥
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥2॥
भावार्थ:-तब सखियों ने
लता की ओट में सुंदर श्याम और गौर कुमारों को दिखलाया। उनके रूप को देखकर
नेत्र ललचा उठे, वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान
लिया॥2॥
* थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥3॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥3॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
की छबि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गए। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक
स्नेह के कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया। मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा को
चकोरी (बेसुध हुई) देख रही हो॥3॥
* लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥4॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥4॥
भावार्थ:-नेत्रों के
रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर चतुरशिरोमणि जानकीजी ने पलकों के किवाड़
लगा दिए (अर्थात नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियों ने सीताजी
को प्रेम के वश जाना, तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकती थीं॥4॥
दोहा :
* लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥232॥
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥232॥
भावार्थ:-उसी समय दोनों भाई लता मंडप (कुंज) में से प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों के परदे को हटाकर निकले हों॥232॥
चौपाई :
* सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥1॥
मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥1॥
भावार्थ:-दोनों सुंदर
भाई शोभा की सीमा हैं। उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल की सी है। सिर पर
सुंदर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे
लगे हैं॥1॥
* भाल तिलक श्रम बिन्दु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥2॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥2॥
भावार्थ:-माथे पर तिलक और पसीने की बूँदें शोभायमान हैं। कानों में सुंदर भूषणों की छबि छाई है। टेढ़ी भौंहें और घुँघराले
बाल हैं। नए लाल कमल के समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं॥2॥
* चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥3॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥3॥
भावार्थ:-ठोड़ी नाक और
गाल बड़े सुंदर हैं और हँसी की शोभा मन को मोल लिए लेती है। मुख की छबि तो
मुझसे कही ही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत से कामदेव लजा जाते हैं॥3॥
* उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥4॥
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥4॥
भावार्थ:-वक्षःस्थल पर
मणियों की माला है। शंख के सदृश सुंदर गला है। कामदेव के हाथी के बच्चे की
सूँड के समान (उतार-चढ़ाव वाली एवं कोमल) भुजाएँ हैं, जो बल की सीमा हैं।
जिसके बाएँ हाथ में फूलों सहित दोना है, हे सखि! वह साँवला कुँअर तो बहुत
ही सलोना है॥4॥
दोहा :
* केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥
भावार्थ:-सिंह की सी
(पतली, लचीली) कमर वाले, पीताम्बर धारण किए हुए, शोभा और शील के भंडार,
सूर्यकुल के भूषण श्री रामचन्द्रजी को देखकर सखियाँ अपने आपको भूल गईं॥233॥
चौपाई :
* धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥
भावार्थ:-एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं॥1॥
* सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥2॥
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥2॥
भावार्थ:-तब सीताजी ने
सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने (खड़े) देखा।
नख से शिखा तक श्री रामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका
मन बहुत क्षुब्ध हो गया॥2॥
* परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥3॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥3॥
भावार्थ:-जब सखियों ने
सीताजी को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं- बड़ी देर
हो गई। (अब चलना चाहिए)। कल इसी समय फिर आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में
हँसी॥3॥
* गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥4॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥4॥
भावार्थ:-सखी की यह
रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं। देर हो गई जान उन्हें माता का भय
लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और (उनका
ध्यान करती हुई) अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं॥4॥
श्री सीताजी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाद
दोहा :
* देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥234॥
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥234॥
भावार्थ:-मृग, पक्षी और
वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की
छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात् बहुत ही बढ़ता जाता
है)॥234॥
चौपाई :
* जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥
भावार्थ:-शिवजी के धनुष
को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की
साँवली मूर्ति को रखकर चलीं। (शिवजी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से
उन्हें चिंता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के
प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने
लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल
का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं और साँवली छबि को हृदय में धारण करके
चलीं।) प्रभु श्री रामजी ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान श्री
जानकीजी को जाती हुई जाना,॥1॥
* परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥2॥
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥2॥
भावार्थ:-तब परमप्रेम की
कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर
चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की
वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं-॥2॥
*जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥
भावार्थ:-हे श्रेष्ठ
पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी
के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो,
हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे
जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥
* नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥
भावार्थ:-आपका न आदि है,
न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार
को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और
स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥
दोहा :
* पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥
भावार्थ:-पति को इष्टदेव
मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार
महिमा को हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते॥235॥
चौपाई :
* सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥
भावार्थ:-हे (भक्तों को
मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी
सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा
करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥1॥
* मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥2॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥2॥
भावार्थ:-मेरे मनोरथ को
आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती
हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजी ने उनके चरण
पकड़ लिए॥2॥
* बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥3॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥3॥
भावार्थ:-गिरिजाजी
सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी
और मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण
किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-॥3॥
* सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥4॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥4॥
भावार्थ:-हे सीता! हमारी
सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र
(संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो
गया है, वही वर तुमको मिलेगा॥4॥
छन्द :
* मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
भावार्थ:-जिसमें
तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्री
रामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है,
तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद
सुनकर जानकीजी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं-
भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥
सोरठा :
* जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236॥
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236॥
भावार्थ:-गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं जा सकता। सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएँ अंग फड़कने लगे॥236॥
चौपाई :
* हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥
भावार्थ:-हृदय में
सीताजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए। श्री
रामचन्द्रजी ने विश्वामित्र से सब कुछ कह दिया, क्योंकि उनका सरल स्वभाव
है, छल तो उसे छूता भी नहीं है॥1॥
* सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भय सुखारे॥2॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भय सुखारे॥2॥
भावार्थ:-फूल पाकर मुनि ने पूजा की। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्री राम-लक्ष्मण सुखी हुए॥2॥
* करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥3॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥3॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ
विज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। (इतने
में) दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई संध्या करने चले॥3॥
* प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥4॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥4॥
भावार्थ:-(उधर) पूर्व
दिशा में सुंदर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के
समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख
के समान नहीं है॥4॥
दोहा :
* जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥237॥
भावार्थ:-खारे समुद्र
में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई,
दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलंकी (काले दाग से
युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता
है?॥237॥
चौपाई :
* घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥1॥
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥1॥
भावार्थ:-फिर यह
घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी संधि
में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और
कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण
हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥1॥
* बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥2॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥2॥
भावार्थ:-अतः जानकीजी के
मुख की तुझे उपमा देने में बड़ा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार
चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बड़ी रात हो गई जान,
वे गुरुजी के पास चले॥2॥
* करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥
बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥
भावार्थ:-मुनि के चरण
कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया, रात बीतने पर
श्री रघुनाथजी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे-॥3॥
* उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥
भावार्थ:-हे तात! देखो,
कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मणजी
दोनों हाथ जोड़कर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले-॥4॥
दोहा :
* अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥
भावार्थ:-अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गई और तारागणों का प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए हैं॥238॥
चौपाई :
* नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥1॥
कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥1॥
भावार्थ:-सब राजा रूपी
तारे उजाला (मंद प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुष रूपी महान अंधकार को हटा
नहीं सकते। रात्रि का अंत होने से जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के
पक्षी हर्षित हो रहे हैं॥1॥
* ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥2॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥2॥
भावार्थ:-वैसे ही हे
प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होंगे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही
परिश्रम अंधकार नष्ट हो गया। तारे छिप गए, संसार में तेज का प्रकाश हो
गया॥2॥
* रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।3॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी।3॥
भावार्थ:-हे रघुनाथजी!
सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है।
आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिए ही
धनुष तोड़ने की यह पद्धति प्रकट हुई है॥3॥
* बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
कनित्यक्रिया करि गरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥4॥
कनित्यक्रिया करि गरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥4॥
भावार्थ:-भाई के वचन
सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर स्वभाव से ही पवित्र श्री रामजी ने शौच से
निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजी के पास आए। आकर
उन्होंने गुरुजी के सुंदर चरण कमलों में सिर नवाया॥4॥
* सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥5॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥5॥
भावार्थ:-
तब जनकजी ने शतानंदजी को बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनि के
पास भेजा। उन्होंने आकर जनकजी की विनती सुनाई। विश्वामित्रजी ने हर्षित
होकर दोनों भाइयों को बुलाया॥5॥
दोहा :
* सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥
भावार्थ:-शतानन्दजी के
चरणों की वंदना करके प्रभु श्री रामचन्द्रजी गुरुजी के पास जा बैठे। तब
मुनि ने कहा- हे तात! चलो, जनकजी ने बुला भेजा है॥239॥
मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवाह्न पारायण, दूसरा विश्राम
मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवाह्न पारायण, दूसरा विश्राम
श्री राम-लक्ष्मण सहित विश्वामित्र का यज्ञशाला में प्रवेश
चौपाई :
* सीय स्वयंबरू देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥1॥
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥1॥
भावार्थ:-चलकर सीताजी के
स्वयंवर को देखना चाहिए। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजी ने
कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाई का पात्र होगा (धनुष तोड़ने
का श्रेय उसी को प्राप्त होगा)॥1॥
* हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥2॥
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥2॥
भावार्थ:-इस श्रेष्ठ
वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर
मुनियों के समूह सहित कृपालु श्री रामचन्द्रजी धनुष यज्ञशाला देखने चले॥2॥
* रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥3॥
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥3॥
भावार्थ:-दोनों भाई
रंगभूमि में आए हैं, ऐसी खबर जब सब नगर निवासियों ने पाई, तब बालक, जवान,
बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल दिए॥3॥
* देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥4॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥4॥
भावार्थ:-जब जनकजी ने
देखा कि बड़ी भीड़ हो गई है, तब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकों को बुलवा
लिया और कहा- तुम लोग तुरंत सब लोगों के पास जाओ और सब किसी को यथायोग्य
आसन दो॥4॥
दोहा :
* कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥
भावार्थ:-उन सेवकों ने
कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणी के)
स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठाया॥240॥
चौपाई :
* राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥1॥
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥1॥
भावार्थ:-उसी समय
राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर हैं) मानो साक्षात
मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो। सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है।
वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं॥1॥
* राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥2॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥2॥
भावार्थ:-वे राजाओं के
समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चन्द्रमा
हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी॥2॥
* देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥3॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥3॥
भावार्थ:-महान रणधीर
(राजा लोग) श्री रामचन्द्रजी के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर रस
शरीर धारण किए हुए हों। कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक
मूर्ति हो॥3॥
* रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥4॥
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥4॥
भावार्थ:-छल से जो
राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में (बैठे) थे, उन्होंने प्रभु को प्रत्यक्ष काल
के समान देखा। नगर निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषण रूप और
नेत्रों को सुख देने वाला देखा॥4॥
दोहा :
* नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥241॥
भावार्थ:-स्त्रियाँ हृदय
में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं। मानो
श्रृंगार रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो॥241॥
चौपाई :
* बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1॥
भावार्थ:-विद्वानों को
प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और
सिर हैं। जनकजी के सजातीय (कुटुम्बी) प्रभु को किस तरह (कैसे प्रिय रूप
में) देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (संबंधी) प्रिय लगते हैं॥1॥
* सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥2॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥2॥
भावार्थ:-जनक समेत
रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं
किया जा सकता। योगियों को वे शांत, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्व के
रूप में दिखे॥2॥
* हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥3॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥3॥
भावार्थ:-हरि भक्तों ने
दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्ट देव के समान देखा। सीताजी जिस
भाव से श्री रामचन्द्रजी को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहने में ही
नहीं आता॥3॥
* उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥4॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥4॥
भावार्थ:-उस (स्नेह और
सुख) का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं। फिर
कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने
कोसलाधीश श्री रामचन्द्रजी को वैसा ही देखा॥4॥
दोहा :
* राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242॥
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242॥
भावार्थ:-सुंदर साँवले
और गोरे शरीर वाले तथा विश्वभर के नेत्रों को चुराने वाले कोसलाधीश के
कुमार राज समाज में (इस प्रकार) सुशोभित हो रहे हैं॥242॥
चौपाई :
* सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥1॥
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥1॥
भावार्थ:-दोनों
मूर्तियाँ स्वभाव से ही (बिना किसी बनाव-श्रृंगार के) मन को हरने वाली हैं।
करोड़ों कामदेवों की उपमा भी उनके लिए तुच्छ है। उनके सुंदर मुख शरद्
(पूर्णिमा) के चन्द्रमा की भी निंदा करने वाले (उसे नीचा दिखाने वाले) हैं
और कमल के समान नेत्र मन को बहुत ही भाते हैं॥1॥
* चितवनि चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥2॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥2॥
भावार्थ:-सुंदर चितवन
(सारे संसार के मन को हरने वाले) कामदेव के भी मन को हरने वाली है। वह हृदय
को बहुत ही प्यारी लगती है, पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुंदर गाल
हैं, कानों में चंचल (झूमते हुए) कुंडल हैं। ठोड़ और अधर (होठ) सुंदर हैं,
कोमल वाणी है॥2॥
* कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥3॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥3॥
भावार्थ:-हँसी, चन्द्रमा
की किरणों का तिरस्कार करने वाली है। भौंहें टेढ़ी और नासिका मनोहर है।
(ऊँचे) चौड़े ललाट पर तिलक झलक रहे हैं (दीप्तिमान हो रहे हैं)। (काले
घुँघराले) बालों को देखकर भौंरों की पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं॥3॥
* पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाईं। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥4॥
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥4॥
भावार्थ:-पीली चौकोनी
टोपियाँ सिरों पर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीच में फूलों की कलियाँ बनाई
(काढ़ी) हुई हैं। शंख के समान सुंदर (गोल) गले में मनोहर तीन रेखाएँ हैं, जो
मानो तीनों लोकों की सुंदरता की सीमा (को बता रही) हैं॥4॥
दोहा :
* कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥
भावार्थ:-हृदयों पर
गजमुक्ताओं के सुंदर कंठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कंधे बैलों
के कंधे की तरह (ऊँचे तथा पुष्ट) हैं, ऐंड़ (खड़े होने की शान) सिंह की सी
है और भुजाएँ विशाल एवं बल की भंडार हैं॥243॥
चौपाई :
* कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥1॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मंजु महाछबि छाए॥1॥
भावार्थ:-कमर में तरकस
और पीताम्बर बाँधे हैं। (दाहिने) हाथों में बाण और बाएँ सुंदर कंधों पर
धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अंग
सुंदर हैं, उन पर महान शोभा छाई हुई है॥1॥
* देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2॥
भावार्थ:-उन्हें देखकर
सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक (निमेष शून्य) हैं और तारे (पुतलियाँ) भी नहीं
चलते। जनकजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए। तब उन्होंने जाकर मुनि के
चरण कमल पकड़ लिए॥2॥
* करि बिनती निज कथा सुनाई। रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3॥
भावार्थ:-विनती करके
अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रंगभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई। (मुनि के साथ)
दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित
हो देखने लगते हैं॥3॥
* निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4॥
भावार्थ:-सबने रामजी को
अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा, परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई
नहीं जान सका। मुनि ने राजा से कहा- रंगभूमि की रचना बड़ी सुंदर है
(विश्वामित्र- जैसे निःस्पृह, विरक्त और ज्ञानी मुनि से रचना की प्रशंसा
सुनकर) राजा प्रसन्न हुए और उन्हें बड़ा सुख मिला॥4॥
दोहा :
* सब मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥
भावार्थ:-सब मंचों से एक मंच अधिक सुंदर, उज्ज्वल और विशाल था। (स्वयं) राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया॥244॥
चौपाई :
* प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1॥
भावार्थ:-
प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए)
जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। (उनके तेज
को देखकर) सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को
तोड़ेंगे, इसमें संदेह नहीं॥1॥
* बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2॥
भावार्थ:-(इधर उनके रूप
को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि) शिवजी के विशाल धनुष को (जो
संभव है न टूट सके) बिना तोड़े भी सीताजी श्री रामचन्द्रजी के ही गले में
जयमाला डालेंगी (अर्थात दोनों तरह से ही हमारी हार होगी और विजय
रामचन्द्रजी के हाथ रहेगी)। (यों सोचकर वे कहने लगे) हे भाई! ऐसा विचारकर
यश, प्रताप, बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो॥2॥
* बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3॥
भावार्थ:-दूसरे राजा, जो
अविवेक से अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हँसे।
(उन्होंने कहा) धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है (अर्थात सहज ही में हम
जानकी को हाथ से जाने नहीं देंगे), फिर बिना तोड़े तो राजकुमारी को ब्याह
ही कौन सकता है॥3॥
* एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4॥
भावार्थ:-काल ही क्यों न
हो, एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेंगे। यह घमंड की बात
सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुस्कुराए॥4॥
सोरठा :
* सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥
भावार्थ:-(उन्होंने
कहा-) राजाओं के गर्व दूर करके (जो धनुष किसी से नहीं टूट सकेगा उसे तोड़कर)
श्री रामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेंगे। (रही युद्ध की बात, सो) महाराज
दशरथ के रण में बाँके पुत्रों को युद्ध में तो जीत ही कौन सकता है॥245॥
चौपाई :
* ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥1॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदंबा जानहु जियँ सीता॥1॥
भावार्थ:-गाल बजाकर
व्यर्थ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम
पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीताजी को अपने जी में साक्षात जगज्जननी
समझो (उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड़ दो),॥1॥
* जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥2॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥2॥
भावार्थ:-और श्री
रघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचार कर, नेत्र भरकर उनकी छबि देख लो
(ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा)। सुंदर, सुख देने वाले और समस्त गुणों की
राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं (स्वयं शिवजी भी
जिन्हें सदा हृदय में छिपाए रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गए
हैं)॥2॥
* सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥3॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥3॥
भावार्थ:-समीप आए हुए
(भगवत्दर्शन रूप) अमृत के समुद्र को छोड़कर तुम (जगज्जननी जानकी को पत्नी
रूप में पाने की दुराशा रूप मिथ्या) मृगजल को देखकर दौड़कर क्यों मरते हो?
फिर (भाई!) जिसको जो अच्छा लगे, वही जाकर करो। हमने तो (श्री रामचन्द्रजी
के दर्शन करके) आज जन्म लेने का फल पा लिया (जीवन और जन्म को सफल कर
लिया)॥3॥
* अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥4॥
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥4॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर अच्छे
राजा प्रेम मग्न होकर श्री रामजी का अनुपम रूप देखने लगे। (मनुष्यों की तो
बात ही क्या) देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं
और सुंदर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं॥4॥
श्री सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेश
दोहा :
* जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं िलवाइ॥246॥
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं िलवाइ॥246॥
भावार्थ:-तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा। सब चतुर और सुंदर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लिवा चलीं॥246॥
चौपाई :
* सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥1॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥1॥
भावार्थ:-रूप और गुणों
की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे
(काव्य की) सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों
से अनुराग रखने वाली हैं (अर्थात् वे जगत की स्त्रियों के अंगों को दी
जाती हैं)। (काव्य की उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गई हैं,
उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति श्री जानकीजी के अप्राकृत, चिन्मय अंगों के
लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है)॥1॥
* सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥2॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥2॥
भावार्थ:-सीताजी के
वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने
(अर्थात सीताजी के लिए उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना
और अपकीर्ति मोल लेना है, कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं
करेगा।) यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाए तो जगत में ऐसी
सुंदर युवती है ही कहाँ (जिसकी उपमा उन्हें दी जाए)॥2॥
* गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥3॥
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥3॥
भावार्थ:-(पृथ्वी की
स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाए तो
हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुंदर हैं, तो उनमें) सरस्वती तो बहुत
बोलने वाली हैं, पार्वती अंर्द्धांगिनी हैं (अर्थात अर्ध-नारीनटेश्वर के
रूप में उनका आधा ही अंग स्त्री का है, शेष आधा अंग पुरुष-शिवजी का है),
कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनंग) जानकर बहुत दुःखी रहती है
और जिनके विष और मद्य-जैसे (समुद्र से उत्पन्न होने के नाते) प्रिय भाई
हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकीजी को कहा ही कैसे जाए॥3॥
* जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥4॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू॥4॥
भावार्थ:-(जिन लक्ष्मीजी
की बात ऊपर कही गई है, वे निकली थीं खारे समुद्र से, जिसको मथने के लिए
भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण किया, रस्सी बनाई गई महान
विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मंदराचल पर्वत ने और
उसे मथा सारे देवताओं और दैत्यों ने मिलकर। जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की
खान और अनुपम सुंदरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुंदर
एवं स्वाभाविक ही कठोर उपकरण। ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्री
जानकीजी की समता को कैसे पा सकती हैं। हाँ, (इसके विपरीत) यदि छबि रूपी
अमृत का समुद्र हो, परम रूपमय कच्छप हो, शोभा रूप रस्सी हो, श्रृंगार (रस)
पर्वत हो और (उस छबि के समुद्र को) स्वयं कामदेव अपने ही करकमल से मथे,॥4॥
दोहा :
* एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥
भावार्थ:-इस प्रकार (का
संयोग होने से) जब सुंदरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि
लोग उसे (बहुत) संकोच के साथ सीताजी के समान कहेंगे॥247॥<
(जिस सुंदरता के समुद्र को कामदेव मथेगा वह सुंदरता भी प्राकृत, लौकिक सुंदरता ही होगी, क्योंकि कामदेव स्वयं भी त्रिगुणमयी प्रकृति का ही विकार है। अतः उस सुंदरता को मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी भी उपर्युक्त लक्ष्मी की अपेक्षा कहीं अधिक सुंदर और दिव्य होने पर भी होगी प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकीजी की तुलना करना कवि के लिए बड़े संकोच की बात होगी। जिस सुंदरता से जानकीजी का दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बना है, वह सुंदरता उपर्युक्त सुंदरता से भिन्न अप्राकृत है- वस्तुतः लक्ष्मीजी का अप्राकृत रूप भी यही है। वह कामदेव के मथने में नहीं आ सकती और वह जानकीजी का स्वरूप ही है, अतः उनसे भिन्न नहीं और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तु के साथ। इसके अतिरिक्त जानकीजी प्रकट हुई हैं स्वयं अपनी महिमा से, उन्हें प्रकट करने के लिए किसी भिन्न उपकरण की अपेक्षा नहीं है। अर्थात शक्ति शक्तिमान से अभिन्न, अद्वैत तत्व है, अतएव अनुपमेय है, यही गूढ़ दार्शनिक तत्व भक्त शिरोमणि कवि ने इस अभूतोपमालंकार के द्वारा बड़ी सुंदरता से व्यक्त किया है।)
(जिस सुंदरता के समुद्र को कामदेव मथेगा वह सुंदरता भी प्राकृत, लौकिक सुंदरता ही होगी, क्योंकि कामदेव स्वयं भी त्रिगुणमयी प्रकृति का ही विकार है। अतः उस सुंदरता को मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी भी उपर्युक्त लक्ष्मी की अपेक्षा कहीं अधिक सुंदर और दिव्य होने पर भी होगी प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकीजी की तुलना करना कवि के लिए बड़े संकोच की बात होगी। जिस सुंदरता से जानकीजी का दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बना है, वह सुंदरता उपर्युक्त सुंदरता से भिन्न अप्राकृत है- वस्तुतः लक्ष्मीजी का अप्राकृत रूप भी यही है। वह कामदेव के मथने में नहीं आ सकती और वह जानकीजी का स्वरूप ही है, अतः उनसे भिन्न नहीं और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तु के साथ। इसके अतिरिक्त जानकीजी प्रकट हुई हैं स्वयं अपनी महिमा से, उन्हें प्रकट करने के लिए किसी भिन्न उपकरण की अपेक्षा नहीं है। अर्थात शक्ति शक्तिमान से अभिन्न, अद्वैत तत्व है, अतएव अनुपमेय है, यही गूढ़ दार्शनिक तत्व भक्त शिरोमणि कवि ने इस अभूतोपमालंकार के द्वारा बड़ी सुंदरता से व्यक्त किया है।)
चौपाई :
* चलीं संग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥
सोह नवल तनु सुंदर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥
भावार्थ:-सयानी सखियाँ
सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर
पर सुंदर साड़ी सुशोभित है। जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है॥1॥
* भूषन सकल सुदेस सुहाए। अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए॥
रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥2॥
रंगभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥2॥
भावार्थ:-सब आभूषण
अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अंग-अंग में भलीभाँति सजाकर
पहनाया है। जब सीताजी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका (दिव्य) रूप देखकर
स्त्री, पुरुष सभी मोहित हो गए॥2॥
*हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि प्रसून अपछरा गाईं॥
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥3॥
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥3॥
भावार्थ:-देवताओं ने
हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं। सीताजी के
करकमलों में जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने
लगे॥3॥
* सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥4॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥4॥
भावार्थ:-सीताजी चकित
चित्त से श्री रामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए।
सीताजी ने मुनि के पास (बैठे हुए) दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना
खजाना पाकर ललचाकर वहीं (श्री रामजी में) जा लगे (स्थिर हो गए)॥4॥
दोहा :
* गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥
भावार्थ:-परन्तु
गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं। वे श्री
रामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं॥248॥
चौपाई :
* राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥1॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना
छोड़ दिया (सब एकटक उन्हीं को देखने लगे)। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर
कहते सकुचाते हैं। मन ही मन वे विधाता से विनय करते हैं-॥1॥
* हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥2॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥2॥
भावार्थ:-हे विधाता! जनक
की मूढ़ता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुंदर बुद्धि उन्हें दीजिए कि
जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोड़कर सीताजी का विवाह रामजी से
कर दें॥2॥
*जगु भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥3॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥3॥
भावार्थ:-संसार उन्हें
भला कहेगा, क्योंकि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है। हठ करने से अंत में
भी हृदय जलेगा। सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य
वर तो यह साँवला ही है॥3॥
बंदीजनों द्वारा जनकप्रतिज्ञा की घोषणा
राजाओं से धनुष न उठना, जनक की निराशाजनक वाणी
* तब बंदीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥
कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥4॥
कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥4॥
भावार्थ:-तब राजा जनक ने
वंदीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले
आए। राजा ने कहा- जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदय में कम आनंद
न था॥4॥
दोहा :
* बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249॥
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249॥
भावार्थ:-भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहा- हे पृथ्वी की पालना करने वाले सब राजागण! सुनिए। हम अपनी भुजा उठाकर जनकजी का विशाल प्रण कहते हैं-॥249॥
चौपाई :
* नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥1॥
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥1॥
भावार्थ:-राजाओं की
भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह
सबको विदित है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर गौं
से (चुपके से) चलते बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूने तक की हिम्मत न
हुई)॥1॥
* सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥2॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥2॥
भावार्थ:-उसी शिवजी के
कठोर धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ
ही उसको जानकीजी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेंगी॥2॥
* सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥3॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥3॥
भावार्थ:-प्रण सुनकर सब
राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाए। कमर
कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले॥3॥
* तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥4॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥4॥
भावार्थ:-वे तमककर (बड़े
ताव से) शिवजी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं,
करोड़ों भाँति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में
कुछ विवेक है, वे तो धनुष के पास ही नहीं जाते॥4॥
दोहा :
* तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ॥
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥
भावार्थ:-वे मूर्ख राजा
तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकड़ते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तो लजाकर चले
जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता
जाता है॥250॥
चौपाई :
* भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न संभु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1॥
डगइ न संभु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1॥
भावार्थ:-तब दस हजार
राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता। शिवजी का
वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी)
चलायमान नहीं होता॥1॥
* सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥2॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥2॥
भावार्थ:-सब राजा उपहास
के योग्य हो गए, जैसे वैराग्य के बिना संन्यासी उपहास के योग्य हो जाता है।
कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए॥2॥
* श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3॥
भावार्थ:-राजा लोग हृदय
से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को
(असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए
थे॥3॥
* दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनिहम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥4॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥4॥
भावार्थ:-मैंने जो प्रण
ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए। देवता और दैत्य भी
मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत से रणधीर वीर आए॥4॥
दोहा :
* कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरतिअति कमनीय।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥
भावार्थ:-परन्तु धनुष को तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी विजय और अत्यन्त सुंदर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं॥251॥
चौपाई :
* कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥1॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥1॥
भावार्थ:-कहिए, यह लाभ
किसको अच्छा नहीं लगता, परन्तु किसी ने भी शंकरजी का धनुष नहीं चढ़ाया। अरे
भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिल भर भूमि भी छुड़ा न सका॥1॥
* अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥
भावार्थ:-अब कोई वीरता
का अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। अब
आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं॥2॥
* सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥3॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥3॥
भावार्थ:-यदि प्रण छोड़ता
हूँ, तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं
जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता॥3॥
श्री लक्ष्मणजी का क्रोध
* जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥4॥
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥4॥
भावार्थ:-जनक के वचन
सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर देखकर दुःखी हुए, परन्तु लक्ष्मणजी
तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गईं, होठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोध से लाल
हो गए॥4॥
दोहा :
* कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥252॥
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥252॥
भावार्थ:-श्री रघुवीरजी
के डर से कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनक के वचन उन्हें बाण से लगे। (जब न रह
सके तब) श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाकर वे यथार्थ वचन
बोले-॥252॥
चौपाई :
* रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥1॥
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥1॥
भावार्थ:-रघुवंशियों में
कोई भी जहाँ होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन
रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे हैं॥1॥
* सुनहु भानुकुल पंकज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥2॥
जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥2॥
भावार्थ:-हे सूर्य कुल
रूपी कमल के सूर्य! सुनिए, मैं स्वभाव ही से कहता हूँ, कुछ अभिमान करके
नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उठा लूँ॥2॥
*काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥3॥
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥3॥
भावार्थ:-और उसे कच्चे
घड़े की तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड़ सकता हूँ, हे
भगवन्! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है॥3॥
* नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥4॥
कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥4॥
भावार्थ:-ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिए। धनुष को कमल की डंडी की तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा लिए चला जाऊँ॥4॥
दोहा :
* तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपके
प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूँ। यदि
ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ
में भी न लूँगा॥253॥
चौपाई :
* लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥1॥
सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥1॥
भावार्थ:-ज्यों ही
लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप
गए। सभी लोग और सब राजा डर गए। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा
गए॥1॥
* गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥2॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥2॥
भावार्थ:-गुरु
विश्वामित्रजी, श्री रघुनाथजी और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार
पुलकित होने लगे। श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और
प्रेम सहित अपने पास बैठा लिया॥2॥
* बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3॥
उठहु राम भंजहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोड़ो और हे तात! जनक का संताप मिटाओ॥3॥
* सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥
भावार्थ:-गुरु के वचन
सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद
और वे अपनी ऐंड़ (खड़े होने की शान) से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज
स्वभाव से ही उठ खड़े हुए ॥4॥
दोहा :
* उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥254॥
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥254॥
भावार्थ:-मंच रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बाल सूर्य के उदय होते ही सब संत रूपी कमल खिल उठे और नेत्र रूपी भौंरे हर्षित हो गए॥254॥
चौपाई :
* नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥
भावार्थ:-राजाओं की आशा
रूपी रात्रि नष्ट हो गई। उनके वचन रूपी तारों के समूह का चमकना बंद हो गया।
(वे मौन हो गए)। अभिमानी राजा रूपी कुमुद संकुचित हो गए और कपटी राजा रूपी
उल्लू छिप गए॥1॥
* भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥
भावार्थ:-मुनि और देवता
रूपी चकवे शोकरहित हो गए। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं। प्रेम
सहित गुरु के चरणों की वंदना करके श्री रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा
माँगी॥2॥
* सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥
भावार्थ:-समस्त जगत के
स्वामी श्री रामजी सुंदर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की सी चाल से स्वाभाविक ही
चले। श्री रामचन्द्रजी के चलते ही नगर भर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और
उनके शरीर रोमांच से भर गए॥3॥
* बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने पितर
और देवताओं की वंदना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया। यदि हमारे पुण्यों
का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल
की डंडी की भाँति तोड़ डालें॥4॥
दोहा :
* रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी को (वात्सल्य) प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर
सीताजी की माता स्नेहवश बिलखकर (विलाप करती हुई सी) ये वचन बोलीं-॥255॥
चौपाई :
* सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥
भावार्थ:-हे सखी! ये जो
हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं। कोई भी (इनके) गुरु
विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि ये (रामजी) बालक हैं, इनके लिए ऐसा
हठ अच्छा नहीं। (जो धनुष रावण और बाण- जैसे जगद्विजयी वीरों के हिलाए न हिल
सका, उसे तोड़ने के लिए मुनि विश्वामित्रजी का रामजी को आज्ञा देना और
रामजी का उसे तोड़ने के लिए चल देना रानी को हठ जान पड़ा, इसलिए वे कहने लगीं
कि गुरु विश्वामित्रजी को कोई समझाता भी नहीं)॥1॥
* रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥2॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं॥2॥
भावार्थ:-रावण और
बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गए, वही धनुष
इस सुकुमार राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं। हंस के बच्चे भी कहीं मंदराचल
पहाड़ उठा सकते हैं?॥2॥
* भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥3॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥3॥
भावार्थ:-(और तो कोई
समझाकर कहे या नहीं, राजा तो बड़े समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरु को
समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी, परन्तु मालूम होता है-) राजा का भी सारा
सयानापन समाप्त हो गया। हे सखी! विधाता की गति कुछ जानने में नहीं आती (यों
कहकर रानी चुप हो रहीं)। तब एक चतुर (रामजी के महत्व को जानने वाली) सखी
कोमल वाणी से बोली- हे रानी! तेजवान को (देखने में छोटा होने पर भी) छोटा
नहीं गिनना चाहिए॥3॥
* कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥
भावार्थ:-कहाँ घड़े से
उत्पन्न होने वाले (छोटे से) मुनि अगस्त्य और कहाँ समुद्र? किन्तु उन्होंने
उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसार में छाया हुआ है। सूर्यमंडल देखने
में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अंधकार भाग जाता
है॥4॥
दोहा :
* मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥256॥
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥256॥
भावार्थ:-जिसके वश में
ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मंत्र अत्यन्त छोटा होता है।
महान मतवाले गजराज को छोटा सा अंकुश वश में कर लेता है॥256॥
चौपाई :
* काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी॥1॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी॥1॥
भावार्थ:-कामदेव ने
फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वश में कर रखा है। हे देवी!
ऐसा जानकर संदेह त्याग दीजिए। हे रानी! सुनिए, रामचन्द्रजी धनुष को अवश्य
ही तोड़ेंगे॥1॥
* सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥2॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥2॥
भावार्थ:-सखी के वचन
सुनकर रानी को (श्री रामजी के सामर्थ्य के संबंध में) विश्वास हो गया। उनकी
उदासी मिट गई और श्री रामजी के प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। उस समय
श्री रामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से जिस-तिस (देवता) से विनती
कर रही हैं॥2॥
* मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥3॥
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥3॥
भावार्थ:-वे व्याकुल
होकर मन ही मन मना रही हैं- हे महेश-भवानी! मुझ पर प्रसन्न होइए, मैंने
आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिए और मुझ पर स्नेह करके धनुष के भारीपन
को हर लीजिए॥3॥
* गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥4॥
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥4॥
भावार्थ:-
हे गणों के नायक, वर देने वाले देवता गणेशजी! मैंने आज ही के लिए तुम्हारी
सेवा की थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर
दीजिए॥4॥
दोहा :
* देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥257॥
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥257॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
की ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओं को मना रही हैं। उनके नेत्रों
में प्रेम के आँसू भरे हैं और शरीर में रोमांच हो रहा है॥257॥
चौपाई :
* नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥1॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥1॥
भावार्थ:-अच्छी तरह
नेत्र भरकर श्री रामजी की शोभा देखकर, फिर पिता के प्रण का स्मरण करके
सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठा। (वे मन ही मन कहने लगीं-) अहो! पिताजी ने बड़ा
ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं॥1॥
* सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥2॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥2॥
भावार्थ:-मंत्री डर रहे
हैं, इसलिए कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पंडितों की सभा में यह बड़ा अनुचित
हो रहा है। कहाँ तो वज्र से भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ ये कोमल शरीर किशोर
श्यामसुंदर!॥2॥
* बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥3॥
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥3॥
भावार्थ:-हे विधाता! मैं
हृदय में किस तरह धीरज धरूँ, सिरस के फूल के कण से कहीं हीरा छेदा जाता
है। सारी सभा की बुद्धि भोली (बावली) हो गई है, अतः हे शिवजी के धनुष! अब
तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है॥3॥
* निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥4॥
अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥4॥
भावार्थ:-तुम अपनी जड़ता
लोगों पर डालकर, श्री रघुनाथजी (के सुकुमार शरीर) को देखकर (उतने ही) हल्के
हो जाओ। इस प्रकार सीताजी के मन में बड़ा ही संताप हो रहा है। निमेष का एक
लव (अंश) भी सौ युगों के समान बीत रहा है॥4॥
दोहा :
* प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥258॥
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥258॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामचन्द्रजी को देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चंचल नेत्र इस
प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो चन्द्रमंडल रूपी डोल में कामदेव की दो
मछलियाँ खेल रही हों॥258॥
चौपाई :
* गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥1॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥1॥
भावार्थ:-सीताजी की वाणी
रूपी भ्रमरी को उनके मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। लाज रूपी रात्रि को
देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है। नेत्रों का जल नेत्रों के कोने (कोये) में
ही रह जाता है। जैसे बड़े भारी कंजूस का सोना कोने में ही गड़ा रह जाता है॥1॥
* सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धींरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥2॥
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥2॥
भावार्थ:-अपनी बढ़ी हुई
व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गईं और धीरज धरकर हृदय में विश्वास ले आईं कि
यदि तन, मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और श्री रघुनाथजी के चरण कमलों
में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है,॥2॥
* तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥3॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥3॥
भावार्थ:-तो सबके हृदय
में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी अवश्य
बनाएँगे। जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें
कुछ भी संदेह नहीं है॥3॥
* प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥4॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥4॥
भावार्थ:-प्रभु की ओर
देखकर सीताजी ने शरीर के द्वारा प्रेम ठान लिया (अर्थात् यह निश्चय कर
लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं) कृपानिधान श्री
रामजी सब जान गए। उन्होंने सीताजी को देखकर धनुष की ओर कैसे ताका, जैसे
गरुड़जी छोटे से साँप की ओर देखते हैं॥4॥
दोहा :
* लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥259॥
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥259॥
भावार्थ:-इधर जब
लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर
ताका है, तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्माण्ड को चरणों से दबाकर निम्नलिखित
वचन बोले-॥259॥
चौपाई :
*दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥1॥
रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥1॥
भावार्थ:-हे दिग्गजो! हे
कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिससे यह हिलने न
पावे। श्री रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को तोड़ना चाहते हैं। मेरी आज्ञा
सुनकर सब सावधान हो जाओ॥1॥
* चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥2॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी जब धनुष के समीप आए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और
पुण्यों को मनाया। सबका संदेह और अज्ञान, नीच राजाओं का अभिमान,॥2॥
* भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥3॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥3॥
भावार्थ:-परशुरामजी के
गर्व की गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनियों की कातरता (भय), सीताजी का सोच,
जनक का पश्चाताप और रानियों के दारुण दुःख का दावानल,॥3॥
* संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू॥4॥
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू॥4॥
भावार्थ:-ये सब शिवजी के
धनुष रूपी बड़े जहाज को पाकर, समाज बनाकर उस पर जा चढ़े। ये श्री
रामचन्द्रजी की भुजाओं के बल रूपी अपार समुद्र के पार जाना चाहते हैं,
परन्तु कोई केवट नहीं है॥4॥
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